A nostalgic poem about changing times by Usha Rani Bansal
गाँव में जब रहते थे
तो
वहाँ —
रात को गाँव सोता था
दिन में गाँव जग जाता था।
जब से बड़े शहरों में रहने लगे ,
तो—
न तो शहर रात को सोता है
और न दिन में जागता है।
पौं फटने , सूरज निकलने
मुर्ग़े की बाँग , चिड़ियों का कलरव
गाँवों की गँवई वस्तु है ,
मोबाईल का अलार्म,
कारों की सरसराहट,
चिल्लाते कानफोड़ू हॉर्न
शहरों की पहचान हैं।
शहर –
जो न कभी सोता है
न कभी जागता है।
हमारे गाँव आज भी
सोते हैं , ओ ! पों फटने पर जागते हैं।
ऊषा बंसल
19.11.19